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रुका हुआ फैसला



इंटरेस्ट रेट में कटौती की उम्मीद तो
वैसे हमेशा रहती है, लेकिन इस बार वाकई लग रहा था कि रिजर्व बैंक आम जनता, बाजार और इंडस्ट्री को खुश करने की कोशिश करेगा। कुछ ही दिन पहले अमेरिकन फेडरल रिजर्व इंटरेस्ट रेट में जोरदार कटौती कर चुका है। आगे भी उसकी तरफ से ऐसी ही कटौती की उम्मीद की जा रही है। लेकिन गवर्नर वाई. वी. रेड्डी ने अमेरिका के पीछे चलना जरूरी नहीं समझा और ज्यादातर लोगों को निराश करते हुए तमाम रेट अनछुए रहने दिए। इससे हमारे मौद्रिक नीतिकारों की आजादखयाली का पता चलता है, लेकिन कटौती की उम्मीद भी कोई बेवजह नहीं थी।

जब से अमेरिका में मंदी का खतरा गहराया है, भारत में भी फिक्र सिर उठाने लगी है। कुछ अरसे से हमारे यहां मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में नर्वसनेस नजर आ रही है। हालांकि यह शुरुआती दौर है, लेकिन हो सकता है कि रिजर्व बैंक की सख्त क्रेडिट पॉलिसी भी इसके लिए जिम्मेदार हो। खुद गवर्नर ने माना है कि इकॉनमी में नरमी के संकेत दिख रहे हैं। इस नरमी को इंटरेस्ट रेट में कटौती से थामने की कोशिश की जा सकती थी, लेकिन रिजर्व बैंक ने 'ठहरो और देखो' की पॉलिसी पर चलने का फैसला लिया।

आर्थिक मामलों में जल्दबाजी ठीक नहीं होती, यह सही है, लेकिन एक दूसरी वजह से भी रेट में कटौती इस वक्त कारगर हो सकती थी। जब एक बैंक रेट गिराता है, तो पूंजी उधर जाने लगती है, जहां रेट ज्यादा हैं। फेडरल रिजर्व के कदम से हो सकता है कि भारत में डॉलरों की आवक फिर बढ़ जाए, जिससे रुपया और भी मजबूत हो जाएगा और एक्सपोर्ट सेक्टर के लिए तकलीफें बढ़ जाएंगी। तब अमेरिकी मंदी का असर भी हम पर ज्यादा पड़ेगा। रिजर्व बैंक ने इस पहलू की बजाय महंगाई को अपनी चिंता में ज्यादा जगह दी है। हालांकि महंगाई की दर निचले लेवल पर ही है, लेकिन रिजर्व बैंक को लगता है कि महंगे तेल और महंगे फूड आइटम्स खेल बिगाड़ सकते हैं। यानी रिजर्व बैंक ने एक आशंका पर दूसरी आशंका को तरजीह दी है। पैसे के मामले में भी अक्सर फैसले सब्जेक्टिव होते हैं और उनके सही-गलत होने का पता आगे चलकर ही लगता है। यह भी सही है कि ग्रोथ और महंगाई के बीच बैलेंस कभी आसान नहीं होता। लेकिन तो भी रेड्डी अपनी मुट्ठी थोड़ी ढीली कर ही सकते थे। वह कोई बड़े खतरे की बात नहीं होती, लेकिन उससे इकॉनमी को हौसला मिलता। इस वक्त ऐसे हौसले की हमें सचमुच जरूरत है।