मेरी प्रिय कविता:-गुलज़ार

गुलज़ार

गुलज़ार, ओमप्रकाश वाल्मीकि, जयंत परमार, पोटैटो ईटर्स, कुकुरमुत्ता, वैन गॉग, हिंदी दिवस, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
'सनफ्लावर' वैन गॉग की मशहूर पेटिंग है, जिसके बारे में अहमदाबाद के जयंत परमार ने नज़्म लिखी है.
मेरे लिए यह चुनाव कर पाना बेहद मुश्किल है कि मेरी अब तक की सबसे पसंदीदा कविता कौन सी है क्योंकि ऐसा करने पर बाक़ी सारी कविताएं बेकार हो जाती हैं.
अलग-अलग मौक़ों पर अलग-अलग नज़्मों की अहमियत होती है. मेरे ख़्याल से किसी भी शायर के लिए यह मुमक़िन नहीं कि वह कोई एक ऐसी कविता बता सके, जो उसे सबसे ज़्यादा प्रिय हो. हां, यह ज़रूर पूछा जा सकता है कि आज मुझे कौन सी कविता अच्छी लग रही है या यह पूछा जा सकता है कि कल कौन सी कविता मुझे पसंद थी.
फर्ज़ कीजिए, कल मुंबई में कोई हादसा हो जाए, विस्फोट हो जाए और उसके बारे में किसी ने कुछ उम्दा कविता कह दी, तो वह अलग बात है. हां, यह ज़रूर है कि कुछ कविताएं, नज़्में ऐसी होती हैं जो हमेशा आपको अच्छी लगती रहती हैं और ऐसी तमाम रचनाएँ हैं. जैसे -
बहुत दिन मैं तुम्हारे दर्द को सीने में लेकर जीभ कटवाता रहा हूं.
उसे शिव की तरह लेकर गले में सारी पृथ्वी घूम आया हूं
कई युग जाग के काटे हैं मैंने 
तुम्हारा दर्द दाख़िल हो चुका अब नज़्म में और सो गया है 
पुराने साँप को आख़िर अंधेरे बिल में जा के नींद आई है.
इस कविता में ख़ासतौर पर शिव का ज़िक्र आता है, पृथ्वी का ज़िक्र आता है. हिंदुस्तानी ज़बान की ख़ूबी ही ऐसी है कि दाईं तरफ़ से बैठो तो उर्दू हो जाती है और बाईँ तरफ़ से बैठो, तो हिंदी हो जाती है.
गुलज़ार, ओमप्रकाश वाल्मीकि, जयंत परमार, पोटैटो ईटर्स, कुकुरमुत्ता, वैन गॉग, हिंदी दिवस, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
गुलज़ार का मानना है कि उनके लिए यह बताना ज़्यादा आसान है कि आजकल उनकी प्रिय कविता कौन सी है.
मुझे कई शायर पसंद हैं. उनमें अहमद नदीम क़ासमी साहब हैं, नसीर अहमद नासिर हैं जो पाकिस्तान के हैं और आज के ज़माने के बहुत ही अच्छे शायर हैं. आज के दौर के जयंत परमार हैं जो अहमदाबाद में रहते हैं और पेंटर हैं. वो पेंटिंग के हवाले से बहुत अच्छी नज़्में लिखते हैं.
वैन गॉग की मशहूर पेंटिंग है 'पोटैटो ईटर्स'. उस पर उन्होंने एक नज़्म लिखी है -
जब भी गुज़रता हूं मैं सूर्यमुखी के पीले खेतों से
बिछा के अपनी आँखें काली मिट्टी में संभल-संभल कर चलता हूं
कुचल न जाएँ वैन गॉग के ताज मेरे पाँव के नीचे
जब भी गुज़रता हूं मैं सूर्यमुखी के पीले खेतों से
आलू खाने वाले यानी 'पोटैटो ईटर्स' बहुत मशहूर पेंटिंग है वैन गॉग की.
खूंटी पर लटकी एक लैंप की पीली-पीली रोशनी में
थकी-थकी सी शाम की पीठ 
दीवारों पर धुएं के बादल की परतें 
कमरे में लकड़ी का टूटा-फूटा टेबल
और पुरानी चार कुर्सियां 
टेबल पर मट्टी की प्लेट में 
उबले आलू की खुशबू 
आलू की खुशबू में भीगा कोमल हाथ
और मेरी दोनों आंखें भी 
ज़ायका लेती हैं आलू का रंगों में

जयंत परमार आज के बड़े महत्वपूर्ण लेखक हैं. वह उर्दू और हिंदी दोनों ज़ुबानों में लिखते हैं. वह हिंदुस्तानी ज़ुबान में लिखनेवाले हैं. वो आज के मशहूर दलित कवि हैं, उनकी कविताएं मुझे बहुत पसंद आती हैं.

मेरी प्रिय कविता -अनामिका



नागार्जुन ने 'हज़ार-हज़ार बाहों वाली', 'खिचड़ी विप्लव देखा है हमने', 'चंदना', 'तालाब की मछलियां' जैसी काव्य रचनाएं कीं.
हिंदी के प्रख्यात कवि बाबा नागार्जुन की कविता 'गुलाबी चूड़ियाँ' मेरी तमाम पसंदीदा कविताओं में से एक सबसे प्रिय कविता है. एक प्रस्तर के भीतर जो स्निग्ध तत्व होता है उसके उद्घाटन की अपनी यतिगति के लिए ये कविता मुझे बेहद पसंद है.
कोई भी व्यक्ति कड़क होता है, कड़क सिंह होता है, मुच्छड़ सिंह होता है लेकिन उसके भीतर भी कुछ न कुछ बड़ा द्रावक होता है जैसे स्मृति का निजी पक्ष.
ये कविता पिता का वात्सल्य रेखांकित करती है ख़ासकर एक ऐसे पिता का वात्सल्य जो परदेस में रहा है. छूटा हुआ परिवार बिहार में, पूर्वी उत्तर प्रदेश में ज़्यादातर पिता रोज़गार की चिंता में या किसी राजनीतिक आंदोलन का महास्वप्न अपनी आँखों में ढारे हुए अपना परिवार पीछे छोड़ आते हैं.
प्रगतिशील आंदोलन के दौरान तो ऐसे पिता बहुत हुए जिनके मन में ये अपराधबोध-सा रहा कि हम घर जार के तो आए हैं कबीर की तरह कि 'जो घर जारै आपना चलै हमारे साथ'. लेकिन जिनको सड़क पर छोड़ आए हैं आम की छाया में इंतज़ार करता हुआ, उनका क्या हाल होगा.
तो ये कविता एक तरह का नाट्य है दो ऐसे पुरुषों को बीच में जिनके भीतर पिता का हृदय है. और जैसे स्त्रियों में तादात्म्य घटित होता है वैसे पिताओं में भी होता है. पिता का जो वात्सल्य है वो कम सुंदर नहीं होता. उसका जो स्निग्ध पक्ष होता है, ये कविता अपनी पूरी बनावट में उसे धीरे-धीरे उजागर कर देती है.
यहां विरोधाभासों का अच्छा मंचन देखने को मिलता है -

नागार्जुन ने 'गुलाबी चूड़ियाँ' कविता 1961 में लिखी थी.
"अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा'ब
लाख कहता हूँ, नहीं मानती है मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस जुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में" (गुलाबी चूड़ियाँ - नागार्जुन)
ट्रक ड्राइवर, रिक्शावाले, ठेलेवाले - जितने भी परदेसी जितने भी परदेसी पिया हैं जिनका ज़िक्र लोककथाओं, गाथाओं और लोकजीवन में आता है, उनके हृदय में जो छोड़ी हुई बेटी का हृदय धड़कता है, उसका ये कविता पूरी त्वरा में मंचन करती है.
यहां पर अधेड़ उम्र के मुच्छड़ चेहरे की बड़ी-बड़ी आँखों में दुधिया वात्सल्य की उपस्थिति दरअसल मनुष्य के मन में, कड़क से कड़क मनुष्य के मन में कोमल भावनाओं की उपस्थिति है जो कि एक बहुत ही द्रावक स्थिति है.
मुझे ये कविता इसलिए भी महत्वपूर्ण लगती है कि यहां पर प्रगतिशील आंदोलन के समय में सारे के सारे लोग सड़क पर थे जैसे इप्टा के लोग, उनके यहां बच्चियां बहुत तेजस्विनी दिखाई गई हैं.
जैसे 'काबुलीवाला' में या फिर त्रिलोचन की 'चंपा काले काले अच्छर में' या फैज़ की जो 'मुनिज़ा' कविता है उसमें.

उनकी पत्नियां तो मुंह सिल के बैठी हैं, लेकिन जो नई बच्चियां बड़ी हो रही हैं वो सब की सब तर्क करनेवाली और तेजस्विनी लड़किया हैं. ये हमारे भविष्य को एक संबल देनेवाला बिंब है. इसलिए ये कविता मुझे बहुत अच्छी लगती है.