इच्छाओं और यथार्थ के बीच के सभी पुल ढहते जा रहे हैं

मेरी
इच्छाओं और यथार्थ के
बीच के सभी पुल ढहते
जा रहे हैं
जैसे किसी फलदार
पेड़ से कच्चे फल
बिन पके ही गिरते
जा रहे हैं
मेरी आकांशाओं के
आसमान धूल धूसरित
होते जा रहे हैं
अब सोचने लगा हूँ
इच्छाओं आकांशाओं के
समुद्र से निकल जाऊं
यथार्थ के रेगिस्तान में
चैन ढूंढ लूं
परमात्मा की हाथों में
स्वयं को सौंप दूं
केवल कर्म में
विश्वास रखूँ

Dr.Rajendra Tela"Nirantar"

अब अपनी ही परछाई से घबराने लगा हूँ

(एक चुके हुए भ्रष्ट नेता और सरकारी अफसर की मन की व्यथा पर -व्यंग्य )
अब अपनी ही
परछाई से
 घबराने लगा हूँ
कहीं मेरा सच ना बता दे
डरने लगा हूँ
जब तक था बाहों में दम
जेब में अथाह धन
साथ में पद का ऊंचा कद
हर काम करता था
सच को गलत कहता था
अब बुढा गया हूँ
पद से हट गया हूँ
ना सत्ता में मेरा कोई बचा
ना ही मैं सत्ता में रहा
कभी ख्याल भी नहीं आया
अहम् की उड़ान भरता रहा
सत्य ईमान को बकवास
समझता रहा
परमात्मा को धोखा देता रहा
अब हर पल परमात्मा
याद आने लगा है
कर्मों की सज़ा के डर से
दम निकलने लगा है
कैसे छुपा रह जाए मेरा सच
इस कोशिश में
मस्तिष्क उलझा रहता है
अब अपनी ही
परछाई से घबराने लगा हूँ
कहीं मेरा सच ना बता दे
डरने लगा हूँ
 Dr.Rajendra Tela"Nirantar"

एक आलसी का चिठ्ठा: PIL of 'We, the people'

लड़की की आँखों को देखिये, चेहरे के भाव और देह की भंगिमा देखिये। यह ऐतिहासिक चित्र है। 
यह है स्त्री! केयरिंग, निर्भय और अपने अधिकारों के प्रति सचेत। 
~तुम्हें नमन है~

खटखटाहटों पर कोई उत्तर न मिले तो भी अकेले हाँक पारना न छोड़ो!’

सब ओर से चुप्पियों से साक्षात होने के पश्चात मैं सर्वोच्च न्यायालय हेतु जनहित याचिका को स्वयं ड्राफ्ट कर रहा हूँ। 

यह पूरे देश में, हर राज्य में कम से कम एक, त्वरित गति न्यायपीठों (Fast Track Courts) की स्थापना हेतु न्यायिक आदेश देने के लिये है। ऐसे न्यायपीठ उन सभी नये पुराने अपराधों की सुनवाई करेंगे जिनमें बलात्कार स्वयंसिद्ध है। ये न्यायालय ऐसी घटनाओं को स्वयं संज्ञान में भी लेते हुये कार्यवाही सुनिश्चित करेंगे। 

यह अंग्रेजी में हैं क्यों कि हमारे न्यायिक तंत्र की भाषा अंग्रेजी है। यह समय भाषा विवाद में पड़ने का नहीं है। युद्ध के समय शस्त्रास्त्र महत्त्वपूर्ण होते हैं न कि उनके खोल और ढाँचे।

यदि आप इस याचिका में कुछ संशोधन चाहें या कुछ जोड़ना चाहें तो अवश्य बतायें। आधी जनसंख्या को सुनिश्चित और लघु समय सीमा में न्याय (justice) मिलना चाहिये। पूरा संविधान पढ़ने की आवश्यकता नहीं, प्रस्तावना (preamble) ही पर्याप्त है।

All my knocking has gone unheard. I begin to draft PIL myself. You may send me suggestions or if you are a lawyer, you may draft it on my behalf who like you, is a tiny part of the people. But I have no money and I am convinced that this issue is beyond the realms of money.
___________________________

Hon'ble Chief Justice of India 

I, a common citizen of Republic of India, constitute 'the people' which has given the constitution to itself. I have proclaimed myself in the preamble to the constitution and today I am before you in the supreme temple of justice asking for the justice.

All I could do was to read the preamble. I can understand only one word JUSTICE in the present context, though I can't express it eloquently. I have a firm belief that this understanding is universal and with this understanding I am before you demanding justice for half of 'the people'. 

I am before you for better half of the people which also is mother in lineage of earth, the mother.

I am before you for that half which ensures continuity of life carrying the future of the people in her womb.

I am before you pleading that she does not delay in deliverance of life but justice has always been a delayed affair for the crimes committed against her just for the fact that she carries organs to bring life on the earth.
 
I am before you to proclaim that these crimes are against the life and I know that in the pages following the preamble it is written that life is a fundamental right.

I am before you for that fundamental right and when I say fundamental, I just know the fundamental beyond technicalities.
 
I am before you for I know that you understand me.
 
I am before you to be my pleader to plead on my behalf with yourself and pronounce that justice must be delivered in a fixed time frame and with all the precision, correctness and effectiveness it deserves for it links to the mother who delivers timely, effectively, precisely to ensure continuity of life and continuity of 'We the people'.... 

_____________

यह केवल प्रारम्भ भर है। मैं लिखता जाऊँगा और 2013 के प्रारम्भ से पूर्व ही सम्पूर्ण सार्वजनिक कर दूँगा। तब तक आप अपने सुझाव भेज सकते हैं। 

ये कड़ियाँ भी द्रष्टव्य हैं:

बलात्कार, धर्म और भय 

सभी ब्लॉगरों से एक अपील 

वृक्ष / अक्षय उपाध्याय

लंबे फैले रास्तों के दोनों ओर खड़े
इन वृक्षों को देखो
तो लगेगा- ये कितने साहस से भरे हैं

वर्षा और शीत में इनकी पत्तियाँ किस तरह झूमती हैं
धूप में खड़े ये वृक्ष
जंगल के पूरे हरेपन को नसों में लिए
ज़मीन पर उगी घास को स्नेह देते हैं और
उनको
हक़ों के लिए बराबर उकसाते हैं ।

ये वृक्ष अँधेरी रातों में भी
जब हवा तक क़ैद हो जाती है
जंगल के हाथ
थके-सहमे यात्रियों को आलिंगन में लेकर
उन्हें आगे के रास्ते के लिए अपना अनुभव
सौंपते हैं ।

पानी में भीगते
नहाए ये वृक्ष
योद्धा से दिखते हैं
अभी भी खोजते हैं

अपनी गाँठदार आँखों से
उन पक्षियों को
जो दूर-दूर देशों से इनके लिए शुभकामनाएँ लाकर
अपने घोंसले बनाएँगे

ये तटस्थ मूक खड़े वृक्ष
केवल वृक्ष नहीं हैं

ये हमारी मंज़िल के सहयात्री हैं
ये जानते हैं इनकी जड़ें कितनी गहरी
और पोख़्ता हैं
जिनकी बदौलत ये वृक्ष
आदमी से कई गुणा बड़े और साहस से भरे हैं ।

शख्स - मेरी कलम से: योजना के यज्ञ में शक्ति जिसे समिधा बनाती है, उसके ...

शख्स - मेरी कलम से: योजना के यज्ञ में शक्ति जिसे समिधा बनाती है, उसके ...: आकाश के उस पार क्या होगा ? निःसंदेह एक आकाश और - जो सितारों की सौगात लिए चाँद और सूरज के संग हमारे लिए छत बनकर हमारे लिए ही प्रतीक्षित ह...

श्यामल सुमन की छः कविताएँ

श्यामल सुमन की छः कविताएँ 

इक दिवाली ये भी है


बिजलियों से जगमगाई, इक दिवाली ये भी है
रोशनी घर तक न आई, इक दिवाली ये भी है

दीप अब दिखते हैं कम ही, मर रही कारीगरी
मँहगी है दियासलाई, इक दिवाली ये भी है
थी भले कम रोशनी पर, दिल बहुत रौशन तभी
रीत उल्टी क्यों बनाई, इक दिवाली ये भी है
देखते ललचा के लाखों, कुछ के तन कपड़े नए
फुलझड़ी ने मुँह चिढ़ाई, इक दिवाली ये भी है
खाते हैं कुछ फेंक देते, और जूठन छोड़ते
बस सुमन देखे मिठाई, इक दिवाली ये भी है

सुमन अंत में सो जाए


कैसा उनका प्यार देख ले
आँगन में दीवार देख ले
दे बेहतर तकरीर प्यार पर
घर में फिर तकरार देख ले

दीप जलाते आँगन में
मगर अंधेरा है मन में
समाधान हरदम बातों से
व्यर्थ पड़े क्यूँ अनबन में
अब के बच्चे आगे हैं
रीति-रिवाज से भागे हैं
संस्कार ही मानवता के
प्राण-सूत्र के धागे हैं
सुन्दर मन काया सुन्दर
ये दुनिया, माया सुन्दर
सभी मसीहा खोज रहे हैं
बस उनकी छाया सुन्दर
मन बच्चों सा हो जाए
सभी बुराई खो जाए
गुजरे जीवन इस प्रवाह में
सुमन अंत में सो जाए


गीत नया तू गाना सीख


खुद से देखो उड़ के यार
एहसासों से जुड़ के यार
जैसे गूंगे स्वाद समझते,
कह ना पाते गुड़ के यार

कैसा है संयोग यहाँ
सुन्दर दिखते लोग यहाँ
जिसको पूछो वे कहते कि
मेरे तन में रोग यहाँ
मजबूरी का रोना क्या
अपना आपा खोना क्या
होना जो था हुआ आजतक,
और बाकी अब होना क्या
क्यों देते सौगात मुझे
लगता है आघात मुझे
रस्म निभाना अपनापन में,
लगे व्यर्थ की बात मुझे
गीत नया तू गाना सीख
कोई नहीं बहाना सीख
बहुत कीमती जीवन के पल,
हर पल खुशियाँ लाना सीख
इक दूजे को जाना है
दुनिया को पहचाना है
फिर भी प्रायः लोग कहे कि
सुमन बहुत अनजाना है


सोने की आरजू में सोना चला गया


जीवन को समझने की, सारी हैं कोशिशें
जितना भी कर सका हूँ, प्यारी हैं कोशिशें
जीने के सिलसिले में उठते हैं नित सवाल
निकलेगा हल सुमन की, जारी हैं कोशिशें

अपने ही घर में देखो, मेहमान कौन है
अपनी ही बुराई से, अनजान कौन है
नजरें जिधर भी जातीं बस आदमी दिखे
खोजो सुमन कि भीड़ में, इन्सान कौन है
जो चौक में बैठा था, कोना चला गया
जादू के साथ साथ में, टोना चला गया
पाने के लिए खोने की, रीति है सुमन
सोने की आरजू में सोना चला गया
रिश्तों में जो थे अपने, वो दूर हो गए
कहते हैं कि हालात से मजबूर हो गए
चेहरे की देख रौनक, ऐसा लगा सुमन
मजबूर ये नहीं हैं, मगरूर हो गए
कहते सभी को मिलता, जितना नसीब है
जिसको भी पूछो कहता, वह तो गरीब है
मेहनत का फल ही मिलता, बातें नसीब की
उलझी सुमन की दुनिया, बिल्कुल अजीब है

भाई से प्रतिघात करो


मजबूरी का नाम न लो
मजबूरों से काम न लो
वक्त का पहिया घूम रहा है
व्यर्थ कोई इल्जाम न लो

धर्म, जगत - श्रृंगार है
पर कुछ का व्यापार है
धर्म सामने पर पीछे में
मचा हुआ व्यभिचार है
क्या जीना आसान है
नीति नियम भगवान है
न्याय कहाँ नैसर्गिक मिलता
भ्रष्टों का उत्थान है
रामायण की बात करो
भाई से प्रतिघात करो
टूट रहे हैं रिश्ते सारे
कारण भी तो ज्ञात करो
सुमन सभी संजोगी हैं
कहते मगर वियोगी हैं
हृदय-भाव की गहराई में
घने स्वार्थ के रोगी हैं

बेदर्द शाम हो जाए


हवाएं सर्द जहाँ, बेदर्द शाम हो जाए
मेरी वो शाम, तुम्हारे ही नाम हो जाए

बदन सिहरते ही बजते हैं दाँत के सरगम
करीब आ, तेरे हाथों से जाम हो जाये
घना अंधेरा मेरे दिल में और दुनिया में
तुम्हारे आने से रौशन तमाम हो जाए
छुपाना इश्क ही कबूल-ए-इश्क होता है
जुबां से कह दो सभी को ये आम हो जाए
सुमन हटा दे सभी चिलमन तो मिलन होगा
रहीम इश्क है, कहीं पे राम हो जाए


Rajesh Asthana

आलेख
गुरु-शिष्य संस्कृति
-       डॉ. सूर्या बॉस
हमारा रहन-सहन, व्यवहार, आचार-विचार, बोलचाल, खान-पान, रीति-रिवाज़, धार्मिक आस्थाएं, वर्ण-व्यवस्था आदि जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत किये जानेवाले अनगिनत क्रियाओं  को, जिन संस्कारों से प्रेरित होकर हम करते हैं,  उसे संस्कृति कहते हैं  
मानव का जन्म इसीलिए हुआ है कि वह प्रकृति से ऊपर उठे, अधिक अच्छा  बने और अधिक परिष्कृत हो. इसी दिशा में होनेवाले प्रयत्न को 'संस्कार' कहा जाता है. संस्कृति मनुष्य को साधारण से ऊपर ले जाती है. उन्नति के शिखर पर पहुँचाती है. अत: मनुष्य को अधिकाधिक संस्कृति संपन्न होना चाहिए. उसे अधिक व्यापक, उदार और निस्वार्थी होना चाहिए. इसीलिए उसे शिक्षा दी जाती है. शिक्षा को ही ज्ञान कहते हैं. ज्ञान का अर्थ केवल 'जानकारी संग्रह करना' नहीं है, बल्कि व्यक्ति की आमूलचूल परिष्कृति में है.
ज्ञान और संस्कृति में भी घनिष्ट सम्बन्ध है.  ज्ञान से ही व्यक्ति संस्कृत होता है.  हमारी जो पांच ज्ञानेन्द्रिय हैं- आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा- इन से प्राप्त ज्ञान को 'प्रत्यक्ष ज्ञान' कहते हैं. श्रद्धा और बुद्धि ज्ञान तक पहुँचने के मार्ग हैं. बुद्धि के आधार पर ही ज्ञान की वृद्धि होती है; परन्तु  इसके लिए  कठिन परिश्रम करना पड़ता है.  परिश्रम सही रास्ते पर है या ग़लत रास्ते की ओर, यह समझाने केलिए गुरु भी अनिवार्य सिद्ध होता है. गुरु के प्रति अपार श्रद्धा ही शिष्य के उन्नयन का पहला सोपान है.
इस ब्रह्माण्ड का पहला गुरु है ब्रह्मा.  माना जाता है कि परम पिता ब्रहमा ने वेदों के मन्त्रों  को ऋषियों के अंतःकरण में समाहित किया था.  महात्मा पराशर के पुत्र महर्षि वेदव्यास ने वेद की रचना करके उनके चार शिष्यों को एक एक हिस्सा पढ़ाया.  इस तरह शिष्य परंपरा का विकास होता गया.  महान गुरुओं के सामान ही भारत में महान शिष्यों की भी कमी नहीं है.
भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य का प्रमुख स्थान रहा है.  हमारी संस्कृति का नींव भी इसी पर आधारित है. श्री बुद्ध-आनंद; श्री रामकृष्ण-विवेकानंद  जैसी गुरु-शिष्य  परम्परा का यशोगान हमेशा होता रहा है.  कवि तथा समाज सुधारक के नाम से विख्यात  कबीरदास की पंक्तियां देखिये -
"गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढ़ी गढ़ी काढ़े खोट .
भीतर हाथ सहारिया, बाहर मारे चोट .."
अर्थात गुरु कुम्हार है,  जो शिष्य रूपी घड़े को पीट-पीट कर सही आकार देते हैं: साथ ही साथ अंदर से हाथ का सहारा भी देते हैं.  गुरु शिष्य संबंध को समझाने केलिए इससे बढ़िया उदाहरण मुश्किल से मिलेगा.
भारतीय संस्कृति के इस अनूठे संबंध को देदीप्यमान करने में एकलव्य की भूमिका अविस्मरणीय है. गुरु भक्ति, कर्त्तव्यपरायणता तथा अथक श्रम साधना की सफलता का कीर्तमान स्थापित करके उसने हमारे संस्कृति को आलोकित किया है.  डॉ. शोभानाथ पाठक ने अपना 'एकलव्य' नामक काव्य में एकलव्य के इन्हीं भावों का यशगान किया है.
नारद मुनि का उपदेश पाकर एकलव्य समझ जाता है कि मन में गुरु के प्रति श्रद्धा; ज्ञान प्राप्ति के लिए कितना सहायक है. इसी गुरु शिष्य प्रेम से मानवता का कल्याण होता है. अच्छे सोच का बीजारोपण ही मानव कल्याण का आधार है. काव्य की पंक्तियां हैं -
                                                     "गुरु शिष्य का स्नेह 
                                                       आंतरिक सुधा उड़ेले.
                                                       मानवता कल्याण इसी में 
                                                       सब कुछ ले लें"
यहाँ ज्ञान के भण्डार को लेने का उपदेश नारद मुनि दे रहे हैं.
गुरु-शिष्य के बीच के संबंध के बारे में कहते यहाँ भी कवि नहीं थकते. वे आगे कहते हैं कि राष्ट्र का अस्तित्व या राष्ट्र का मेरु दंड इसी गुरु-शिष्य संबंध पर आधारित है.-
"गुरु शिष्य संबंध
राष्ट्र  की रम्य रीढ़ है
इस  पर विश्व विकास
वज्र से भी यह दृढ है."
पौराणिक काल में पुत्र को गुरु के पास इसलिए भेजते थे  कि, वह ज्ञान प्राप्त करके राष्ट्र का तथा धरती का उन्नयन करें.  भील राजा हिरन्य धनु भी अपने बेटा एकलव्य से यही कहता है कि, "अब तुम मेरे बगीचे का अंकुर हो. ज्ञान प्राप्त कर उगो,  लहराओ ओर धाती को अपने ज्ञान से प्रबुद्ध करो ."-पंक्तियाँ है  -
"आशा के अंकुर  तुम मेरे,
उगो ओर लहराओ
मेरी बगिया के प्रसून हो
धरती को गम्काओ"
ज्ञान प्राप्ति के लिए साधना करना कितना आवश्यक है,  इसकी और आगे प्राकाश डालता है.  साधना का मतलब है- प्रयत्न.  प्रयत्न के बिना ज्ञान की सिद्धि नहीं होती.  फल की चिंता न करते हुए मुक्त होकर प्रयास करने का नाम ही कर्मयोग है.  कर्मयोग से चित्त शुद्ध होता है और ज्ञानार्जन केलिए तैयार होता है.  एकलव्य को भी साधना का पथ कष्टतर  मालूम होता है.  लेकिन कर्मयोग के पथ पर चलने के लिए ज्ञानार्जन उसको आसान लगता है-
"साधन पथ तो
सदा कंटकाकीर्ण रहा है
कर्मयोग से वही
सुखद विस्तीर्ण रहा है"
अर्थात कर्त्तव्य को निष्काम भाव से करते रहने से साधना का पथ आसान या सरल हो जाता है. त्याग, तपस्या लक्ष्य प्राप्ति की अभिलाषा आदि से विद्यार्थी को शक्ति प्रदान करना होगा.  साथ ही गुरु के प्रति श्रद्धा, भक्ति आदि भाव भी होना अनिवार्य है.  एकलव्य में ये सभी गुण दर्शनीय हैं-
" श्रद्धा-भक्ति-समष्टि
द्रोन मूर्ती पर अर्पित
वीर धनुर्धर बनने की धुन
सब सुख वर्जित"
इन्हीं गुणों के कारण एकलव्य तीर चलाने में सिद्धहस्त साबित होता है.  जिसमें दृढ़ इच्छा तथा सामर्थ्य है - वह ज़रूर सफल होगा. इसका ठोस प्रमाण है - एकलव्य. कवि कहता है –
"जहां लगता है ललक लालसा
लक्ष्य प्राप्ति की अभिलाषा
अष्ट सिद्धि नवनिधि का  संबल
कर्मयोग की परिभाषा"
अदम्य इच्छा के साथ प्रयत्न करते रहना, या कर्मयोग करते रहने से अष्ट सिद्धि और नवनिधि भी प्राप्त होते हैं.  लेकिन उस केलिए गुरु दक्षिणा के रूप में बाण चलाने के लिए अनिवार्य अंगूठा भी काट कर देने की मानसकिता या उतनी तीक्ष्ण गुरु भक्ति ज़रूरी है.  एकलव्य गुरु को भगवान् मानता है.  ये पंक्तियाँ देखिये -
"जीवन भर हूँ ऋणी गुरू का
मेरे लिए वही भगवान्
गुरु ज्ञान से ही गौरवान्वित
मानव बनता उच्च महान"
भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा का यशोगान सर्वथा बिखरा पड़ा है.
"गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णुः
गुरुर्देवो महेश्वरा
गुरु साक्षात परब्रह्मा
तस्मै श्री गुरवे नमः"
यही हमारी संस्कृति का मूलमंत्र है.  गुरु मानव को महान बनाता है.  आजकल गुरु की महिमा घटती जा रही है.  इस माहौल में हर एक को महान बनाने के पीछे, जो भी धन्य भाग्य है उनके चरणों में यह लेख समर्पित है.