गुलज़ार
फर्ज़ कीजिए, कल मुंबई में कोई हादसा हो जाए, विस्फोट हो जाए और उसके बारे में किसी ने कुछ उम्दा कविता कह दी, तो वह अलग बात है. हां, यह ज़रूर है कि कुछ कविताएं, नज़्में ऐसी होती हैं जो हमेशा आपको अच्छी लगती रहती हैं और ऐसी तमाम रचनाएँ हैं. जैसे -
बहुत दिन मैं तुम्हारे दर्द को सीने में लेकर जीभ कटवाता रहा हूं.
उसे शिव की तरह लेकर गले में सारी पृथ्वी घूम आया हूं
कई युग जाग के काटे हैं मैंने
तुम्हारा दर्द दाख़िल हो चुका अब नज़्म में और सो गया है
पुराने साँप को आख़िर अंधेरे बिल में जा के नींद आई है.
उसे शिव की तरह लेकर गले में सारी पृथ्वी घूम आया हूं
कई युग जाग के काटे हैं मैंने
तुम्हारा दर्द दाख़िल हो चुका अब नज़्म में और सो गया है
पुराने साँप को आख़िर अंधेरे बिल में जा के नींद आई है.
इस कविता में ख़ासतौर पर शिव का ज़िक्र आता है, पृथ्वी का ज़िक्र आता है. हिंदुस्तानी ज़बान की ख़ूबी ही ऐसी है कि दाईं तरफ़ से बैठो तो उर्दू हो जाती है और बाईँ तरफ़ से बैठो, तो हिंदी हो जाती है.
मुझे कई शायर पसंद हैं. उनमें अहमद नदीम क़ासमी साहब हैं, नसीर अहमद नासिर हैं जो पाकिस्तान के हैं और आज के ज़माने के बहुत ही अच्छे शायर हैं. आज के दौर के जयंत परमार हैं जो अहमदाबाद में रहते हैं और पेंटर हैं. वो पेंटिंग के हवाले से बहुत अच्छी नज़्में लिखते हैं.
वैन गॉग की मशहूर पेंटिंग है 'पोटैटो ईटर्स'. उस पर उन्होंने एक नज़्म लिखी है -
वैन गॉग की मशहूर पेंटिंग है 'पोटैटो ईटर्स'. उस पर उन्होंने एक नज़्म लिखी है -
जब भी गुज़रता हूं मैं सूर्यमुखी के पीले खेतों से
बिछा के अपनी आँखें काली मिट्टी में संभल-संभल कर चलता हूं
कुचल न जाएँ वैन गॉग के ताज मेरे पाँव के नीचे
जब भी गुज़रता हूं मैं सूर्यमुखी के पीले खेतों से
बिछा के अपनी आँखें काली मिट्टी में संभल-संभल कर चलता हूं
कुचल न जाएँ वैन गॉग के ताज मेरे पाँव के नीचे
जब भी गुज़रता हूं मैं सूर्यमुखी के पीले खेतों से
आलू खाने वाले यानी 'पोटैटो ईटर्स' बहुत मशहूर पेंटिंग है वैन गॉग की.
खूंटी पर लटकी एक लैंप की पीली-पीली रोशनी में
थकी-थकी सी शाम की पीठ
दीवारों पर धुएं के बादल की परतें
कमरे में लकड़ी का टूटा-फूटा टेबल
और पुरानी चार कुर्सियां
टेबल पर मट्टी की प्लेट में
उबले आलू की खुशबू
आलू की खुशबू में भीगा कोमल हाथ
और मेरी दोनों आंखें भी
ज़ायका लेती हैं आलू का रंगों में
थकी-थकी सी शाम की पीठ
दीवारों पर धुएं के बादल की परतें
कमरे में लकड़ी का टूटा-फूटा टेबल
और पुरानी चार कुर्सियां
टेबल पर मट्टी की प्लेट में
उबले आलू की खुशबू
आलू की खुशबू में भीगा कोमल हाथ
और मेरी दोनों आंखें भी
ज़ायका लेती हैं आलू का रंगों में
जयंत परमार आज के बड़े महत्वपूर्ण लेखक हैं. वह उर्दू और हिंदी दोनों ज़ुबानों में लिखते हैं. वह हिंदुस्तानी ज़ुबान में लिखनेवाले हैं. वो आज के मशहूर दलित कवि हैं, उनकी कविताएं मुझे बहुत पसंद आती हैं.